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बैंक पहुँच रहे आदिवासी ग्रामीणों को पुलिस प्रताड़ित करते नक्सलियों का पैसा बता रही

नोटबंदी के बाद बस्तर में हर आदिवासी में नक्सल छवि देखी जा रही है।

फोटो लाखन सिंह कोयलीबेडा एड़ेनर में सुरक्षा बलों द्वारा लुटे गये संदूक की तस्वीर 
आदिवासी समाज प्रमुखों ने दंतेवाड़ा स्थानीय धर्मशाला में कार्यकारिणी गठन के दौरान नोटबंदी का स्वागत करते हुए कहा कि ग्रामीण बैंकों की बजाए जमा पूंजी घरों में रखते हैं। लेकिन रुपए चलन से बाहर होने की खबर के बाद बैंक पहुंच रहे हैं तो उन्हें पुलिस प्रताड़ित करने नक्सलियों का पैसा बता रही है। ऐसे में वे भय से बैंक नहीं आ रहे है। ग्रामीणों के पास वनोपज और महुआ-टोरा से 50 हजार से भी अधिक राशि घरों में है। लेकिन अधिक राशि लेकर बैंक पहुंचने से उससे थाने बुलाकर पूछताछ की जा रही है। इसके चलते अंदरूनी क्षेत्र के अनेक ग्रामीण साहूकारों के पास कम दाम पर पुराने नोट बदलवा रहे है। समाज प्रमुखों ने 500-1000 रुपए के पुराने नोटों को चलन से बाहर के सरकार के निर्णय का स्वागत किया गया। साथ ही ग्रामीणों क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को पुराने नोट बदलवाने और खाते में जमा करने में हो रही दिक्कतों पर गहन चर्चा हुई। वही हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के अनुसार कई ग्रामीणों का बैंक में खाता भी नही है , लेकिन उनके पास बरसो की जमा पूंजी है, अगर जमा कराने जाते है तो उसे पुलिस नक्सलियों का पैसा बता रही है। सुरक्षा बलों की भारी निगरानी के बीच बैंको में इस समय आदिवासी अपना पैसा बदलने या जमा करने पहुच रहे है। इस समय नक्सलियों द्वारा खापाय जा रहा पैसा और बस्तर के आदिवासी के पैसे में फर्क करना काफी कठिन कार्य हो गया है। विदित हो कि ग्रामीण आदिवासियों पास ज्यादातर बैंक में खाते नही होते, होते भी है तो बैंक कोसो दूर होता है, जमा पूंजी में जीवन भर वनोपज चार, महुवा, टोरा, तेंतुपत्ता, महुवे के शराब बेच कर कुछ पैसे जुटाए रहते है और ये पैसा बैंक में नही बल्कि बांस के होल, ढोनगी, कोढ़ी, तुम्बा में रखा हुआ रहता है। नोटबंदी से बिल्कुल नक्सलियों की कमर टूटी होगी, उनका पैसा मिटटी में भी मिल जाए, लेकिन उन ग्रामीणों की क्या गलती जिनका पैसा अब नक्सलियों का पैसा होने लगा है? गांव से चेक पोस्ट पर जैसे ही पहुँचते है, वो नक्सली करार कर दिए जाते है, वो नोट कैसे बदलवाने जाए? सरकार और पुलिसिया नुमाइंदों ने तो पहले ही ठप्पा लगा दिया है कि नक्सली अपना काला धन आदिवासियों ग्रामीणों से बादलवायेंगे? इतने मजबूर हो चुके है ग्रामीण की अपना ही पैसा वो नही बदलवा सकते? अगर किसी ग्रामीण पास 5000 रुपया भी है तो उसे तत्काल नक्सली पैसे का तमगा लगा दिया जायेगा? क्या सिर्फ शहरों के सेठो के पास ही पैसा रहता है? किसी ग्रामीण के पास नही रहता क्या? उन सेठो को तो मौज है जो एक ही झटके में अपना पूरा काला धन सफेद कर लेंगे, लेकिन उन ग्रामीणों का क्या? उन्हें तो नक्सलवाद और सरकार की इस लड़ाई में कही का नही छोड़ा? और नोट बदलने का जिम्मा किन्हें सौपा गया है जो सन्दूक तोड़ कर पैसा लूट लिया करते थे ।

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